उत्तराखंड की दिवाली एक सांस्कृतिक धरोहर: तीज-त्योहारों में दिखती है एकता और प्रेम की झलक।

 


All India tv news। उत्तराखंड में दिवाली के पावन पर्व पर एक अनोखी परंपरा देखने को मिलती है, जिसे "भैलो" कहा जाता है। इस दौरान लोग अपने मवेशियों की पूजा करते हैं, उनके सिंगों और पैरों को धोकर उन्हें खाना खिलाते हैं और उनके स्वास्थ्य की कामना करते हैं। उत्तराखंड में दिवाली मुख्य रूप से कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों में अलग-अलग परंपराएं मनाई जाती हैं। कुमाऊं में दिवाली से 15 दिन पहले 'छोटी दिवाली' और इसके 11 दिन बाद 'बूढ़ी दिवाली' मनाई जाती है, जबकि गढ़वाल में मुख्य दिवाली के 11 दिन बाद 'इगास-बग्वाल' मनाई जाती है। इन त्योहारों में गन्ने से मां लक्ष्मी की प्रतिमा बनाना, भैलो (मशाल) जलाना और 'भैलो रे भैलो' के नारे लगाना, पारंपरिक लोक गीत-नृत्य जैसे चांचरी और झुमेलों का आनंद लेना शामिल है। 

प्रेम और एकता का प्रतीक :-

दिवाली के इस पर्व पर लोग एक दूसरे के घर जाकर पकवान देकर मिल-बांटकर खाते हैं और प्रेम भाव में एक दूसरे के गले मिलकर अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषा में गीत गाकर खुशी खुशी त्योहारों को मनाते हैं। यह परंपरा हमें एकता और प्रेम का संदेश देती है।

संस्कृति की आत्मा :-

उत्तराखंड की यह सांस्कृतिक धरोहर हमें हमारी जड़ों से जुड़े रखती है और हमें अपनी संस्कृति पर गर्व करने का अवसर प्रदान करती है। यह परंपरा हमें सिखाती है कि जीवन में प्रेम, एकता और सहयोग कितना महत्वपूर्ण है।

आइए, अपनी संस्कृति को बचाएं :-

हमें अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने और आगे बढ़ाने काप्रयास करना चाहिए। आइए, हम सब मिलकर अपनी संस्कृति को बचाएं और आने वाली पीढ़ियों को इसका महत्व बताएं।


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